ये सांझी की मूर्ति है जो मेरे मामा के लडके ने भेजी है। हालांकि फोटो मैने चाचा के लडके से भी मंगवाई थी पर उस झांझी( सांझी) में ये हाथी ,शेर ,ढोलिये ,मोर, बत्तख, ईंढा , कंघा, जूती, चिडिया व मेरे प्रिय बैंड बाजे वाले आदि नी थे। तो ननिहाल की सांझी पोस्ट कर रहा हूँ।
यह लोककला है जो दिल्ली देहात, कौरवी इलाका , ब्रज भूमि में बहुत ही प्रचलित व पूजनीय है। जब नोरते ( नवरात्र) आते हैं तो इन्हें बनाकर भीत पर गोबर से चिपका देते हैं व पायते( दशहरे) के दिन खुरचकर खील भरी कुल्हो के साथ गांव के जोहड में सिला ( विसर्जन) देते हैं।
रोज रात को कुटुंब की लडकियाँ इकट्ठी होकर देबी का आरता( साँझी देवी की आरती) करती हैं व एक दो दिन गीत गाती हैं। यह लोककला सदियो से बहुत प्रचलित व समृद्ध है । बचपन में तो हम ताऊ चाचा के लड़के भी इकट्ठे होकर आरता करते थे पर थोडे किशोर होते ही बंद कर दिया क्योंकि फिर शरम लगने लगी। बचपन में मैने भी ये बैंड बाजे वाले बनाये हैं होंस होंस में मम्मी की गैल।
जब मैं वैदिक स्कूल में पढा व आर्य समाजी हुआ तो आर्य समाज की परंपरा के अनुसार मैने अपने कौरवी अंचल में सदियो से चली आ रही लोककला , परंपराओ पर सवालिया निशान लगाना शुरू कर दिया जैसे कि हमारे खेतो में बने देवता की पूजा ,उन पर हर रविवार को दूध चढाना( हम बालको को ही जाना पडता था), सांझी बनाना व आरता करना ,गोगा जाहरवीर पूजा व जात लगाना , बाबा मोहनराम की पूजा और भी बहुत कुछ पर मेरी खिलाफत बेअसर ही रही क्योंकि जिन परंपराओ व रीतियो को हमारे बडे बुड्ढे बनाते व मनाते आ रहे थे उन्हें मेरे जैसे कल के बालक के कहने से कौन बंद कर सकता था। टोटका करना से लेकर घाल छोडना सब पर बोला । कम कुछ नी हुआ ।
अब सोचता हूँ व मानता भी हूँ कि कुछ चीजे हमारी विरासत व धरोहर हो गयी हैं उनमें से ये भी एक है सांझी बनाना व आरता करना ,अहोई मनाना, देवता पूजणा आदि। इन झांझियो को म्हारी माँ दादी बहन बुआ आदि बडे प्यार व कलात्मकता से बनाती व सजाती रही हैं और फिर रंग भरती रही हैं।
यह लोक धरोहर है और ऐसे ही हमारे देवता पूजन भी क्योंकि ये स्वर्गलोक वाले इन्द्र ,वरूण आदि देवता नी है बल्कि हमारे पुरखे हैं जिन्होने हर दिक्कत परेशानी में भी गांवो को आबाद रखा , जंगलात को हटाकर खेती की व गांव बसाये और साथ ही दूसरो को भी बसने के लिये पूरी मदद की। लंबा सफर तय किया इन पुरखो ने गुजरात से गंगा के किनारे तक का।
सोचा जाये तो कौरवी अंचल की इन लोक कलाओ के साथ दुहात का व्यवहार हुआ है जितना स्थान व चर्चा दूसरी लोक कलाओ व धरोहरो को मिल रही है उतनी तो दूर थोडी बहुत भी इन कौरवी लोक कलाओ को नहीं मिल रही है। सोचता हूँ थोडा बहुत इस दिशा में भी करूँ । क्योंकि धरोहरो व विरासतो को सहेजना बहुत ही जरूरी है।
- मनीष पोसवाल